Shradh Paksha-2018 || मृत परिजनों को कैसे पहुंचता है भोजन || Suresh Shrimali


मृत परिजनों को कैसे पहुंचता है भोजन?


आप निश्चित ही यह जानना चाहेंगे कि देवताओं के लिये जो हव्य दिया जाता है, पितृो के लिये जो कव्य दिया जाता है- ये दोनों देवताओं तथा पितृो को कैसे मिलता है? 
जिस प्रकार गोशाला में भूली माता को बछड़ा किसी-न-किसी प्रकार ढूंढ ही लेता है, उसी प्रकार मंत्र शक्ति वस्तु तत्व को प्राणी के पास किसी-न-किसी प्रकार पहुंचा ही देती है।
इसके प्रत्यक्ष जानकार यमराज हैं, क्योंकि ये दोनों उनके अधिकार-क्षेत्र में आते हैं। अपनी स्मृति में उन्होंने कहा है कि मन्त्रवेत्ता ब्राह्मण श्राद्घ के अन्न के जितने कौर अपने पेट में डालता है, उन कौरों को श्राद्धकर्ता का पिता ब्राह्मण के शरीर में स्थित होकर पा लेता है। यमस्मृति में कहा भी है- 
‘‘यावतो ग्रसते ग्रासान् हव्यकव्येषु मन्त्रवित्। 
तावतो ग्रसते पिण्डान् शरीरे ब्रह्माणः पिता।।’’

वैसे भी आज के तकनीकी युग में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि श्राद्ध आदि में समर्पित वस्तुएं जो स्वजन देह त्याग चुके, निधन हो गया उन्हें कैसे पहुंचती है? जब देह ही नहीं, प्राण ही नहीं तो वह समर्पित वस्तुओं को ग्रहण कैसे कर पाएंगे? इसका उत्तर शैव महायोगी महाकाल के शब्दों में जानिए कि पितृो तथा देवताओं की योनि ही ऐसी है कि वे दूर से कही हुई बातें सुन लेते हैं, दूर से की पूजा भी ग्रहण कर लेते हैं, दूर से की गयी स्तुति से भी संतुष्ट होते हैं। वे भूत, भविष्य तथा वर्तमान सब कुछ जानते हैं तथा सर्वत्र पहुंचते हैं। पांचों तन्मात्राएं, मन, बुद्धि, अहंकार, प्रकृति-इन नौ तत्वों का बना हुआ उनका शरीर होता है। इसके भीतर दसवें तत्व के रूप में साक्षात भगवान् पुरूषोत्तम निवास करते हैं। इसलिये देवता, पितर गंध तथा रस-तत्व से तृप्त होते हैं। शब्द-तत्व से रहते हैं, स्पर्श-तत्व को ग्रहण करते हैं। पवित्रता देखकर उन्हें परम तुष्टि होती है। वे वर देने में समर्थ हैं। जैसे मनुष्यों का आहार अन्न है, पशुओं का आहार तृण है, वैसे ही पितृो का आहार अन्न का सार-तत्व है। पितृो की शक्तियां अचिन्त्य, ज्ञानगम्य हैं। अतः वे अन्न तथा जल का सार-तत्व ही ग्रहण करते हैं, शेष जो स्थूल वस्तु है, वह यहीं स्थित रह जाती है।

दर्शकों, इसे थोड़ा ओर समझ लें कि नाम गोत्रों के सहारे विश्वेदेव, अग्रिष्वात आदि दिव्य पितर हव्य-कव्य को पितृो को प्राप्त करा देते हैं। जैसे वर्षा होती है तो पानी एक ही बरसता है लेकिन यदि वर्षा की बूंद सीप में जाए तो वह मोती बन जाती है, यही बूंद कंदली में गिरे तो कर्पूर बन जाती है और खेत में गिरे तो अन्न उत्पन्न करती है और यदि मिट्टी में गिरे तो कीचड़ बनाती है। वैसे ही श्राद्ध में किया गया तर्पण और ब्रहामण भोजन भी यदि पिता देवयोनि को प्राप्त हो गये हो तो यहां दिया गया अन्न उसे अमृत होकर प्राप्त होता है। मनुष्य योनि अथवा पशुयोनि में भी उसे अभीष्ट अन्न तृण के रूप में वह हव्य-कव्य प्राप्त होता है। नाग आदि योनियों में वायु रूप से, यक्षयोनि में पान रूप से तथा अन्य योनियों में भी श्राद्ध वस्तु उसे भोगजनक तृप्तिकर पदार्थों के रूप में मिलकर अवश्य तृप्त करता है। नाम, गौत्र, हृदय की भक्ति तथा देश-कालादि के सहारे दिये हुए पदार्थों को भक्ति से उच्चारित मंत्र उनके पास पहुंचा देता है। जीव चाहे सैकड़ों योनियों को भी पार क्यों न कर गया हो, तृप्ति तो उसके पास पहुंच ही जाती है।

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