स्वर्ग में कौन और नरक में कौन जाएगा? दुखि होने से बचने के लिए जानें पुत्र-पौत्रादी के कर्तव्य | Suresh Shrimali
कौन जाएगा स्वर्ग और नरक में ?
जानिए पुत्र-पौत्रादी के कर्तव्य
जीवन का प्रारम्भ जन्म से होता है तो जीवन की समाप्ति मृत्यु से होती है। जीवात्मा इतनी सूक्ष्म होती है कि जब वह शरीर से निकलती है, उस समय कोई भी मनुष्य उसे अपने चक्षुओं से देख नहीं सकता। इसलिए इस शरीर से ही जीवात्मा अपने द्वारा किये हुए धर्म और अधर्म के परिणामस्वरूप सुख-दुःख को भोगता है और फिर इसी सूक्ष्म शरीर से पाप करने वाले मनुष्य अन्नत यातनाएं भोगते हुए यमराज के पास पहुंचते हैं और दूसरी ओर धार्मिक कर्म करने वाले मनुष्य प्रसन्नतापूर्वक सुख-भोग करते हुए धर्मराज के पास जाते हैं। केवल मनुष्य योनि ही मृत्यु के पश्चात् सूक्ष्म शरीर धारण करती हैं और फिर उस शरीर को यम पुरूषों के द्वारा यमराज के पास ले जाया जाता है परन्तु अन्य प्राणियों को नहीं ले लाया जाता क्योंकि सभी दूसरे प्राणियों को यह सूक्ष्म शरीर प्राप्त नहीं होता बल्कि वह तो मरने के तत्काल बाद दूसरा जन्म ले लेते है। इसलिए सिर्फ मनुष्य को अपने शुभ व अशुभ कर्मों के अच्छे-बुरे परिणाम इहलोक व परलोक में भोगने पड़ते है। इसलिए शास्त्रों व पुराणों में मृत्यु का स्वरूप, मरणासन्न व्यक्ति की अवस्था और उसके कल्याण के लिये अंतिम समय में किये जाने वाले कृत्यों का महत्व बताया गया है। साथ ही मृत्यु के बाद के संस्कार, पिण्डदान, तर्पण, श्राद्ध, एकादशा, सपिण्डीकरण, कर्मविपाक, पापों के प्रायचिष्त का विधान आदि भी वर्णित है। मनुष्य इस लोक से जाने के बाद अपने पारलौकिक जीवन को किस प्रकार सुखमय एवं शांतिमय बना सके तथा उसकी मृत्यु के बाद उस प्राणी के उद्धार के लिये पुत्र-पौत्रादि के क्या कर्तव्य हैं, इसकी जानकारी सबको होनी चाहिये। इसलिए कहा गया है कि - पुन्नामनरकात् त्रायते इति पुत्रः यानि नरक से रक्षा करता है, वही पुत्र हैं। सामान्यतः मनुष्य से इस जीवन में पाप और पुण्य दोनों होते हैं। इसलिए पुण्य का फल स्वर्ग और पाप का फल नरक हैं। नरक में पापी को घोर यातनाएं भोगनी पड़ती हैं और स्वर्ग-नरक भोगने के बाद जीव पुनः अपने कर्मों के अनुसार चैरासी लाख योनियों में भटकने लगता है।
अतः शास्त्रों के अनुसार पुत्र-पौत्रादि का यह कत्र्तव्य होता है कि वे अपने माता-पिता तथा पूर्वजों के निमित्त श्रद्धापूर्वक कुछ ऐसे शास्त्रोक्त कर्म करें, जिससे उन मृत प्राणियों को परलोक में अथवा अन्य योनियों में भी सुख की प्राप्ति हो सके। इसीलिये भारतीय संस्कृति तथा सनातन धर्म में पितृ गण से मुक्त होने के कारण अपने माता-पिता तथा परिवार के मृत प्राणियों के निमित्त श्राद्ध करने की अनिवार्य आवश्यकता बताई गई है और इसी श्राद्ध कर्म को पितृ कर्म भी कहते है। पितृ कर्म से तात्पर्य पितृ पूजा से है।
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